जीवन
बादल गरजे ,बिजली चमकी ,
आसमान छा गया धरती पे,
बूँदे टपक पड़ी तेज़ी से
फिर भी अनबूझी रही सर्वस्वी प्यास …
निकली दुआँए किसिके दिलसे
उठी तरंगें मन में ,
पर भूखे मज़दूर भयग्रस्त हो गये
रोटी की चिंता से निहाल होकर …
गीत निकल पड़े कवियों की कलमसे,
प्रेमी मन तड़प उठे मिलन की कसक से ,
झोपड़ीयों में नन्हे बच्चे ठिठुरने लगे सर्दिसे…
महलों में लोग ललचा उठे ,
रेशमी कंबल की ऊब को ,
और निर्धनों की छत प्रतिबिंबित कर रही थी ,
टूटे बिखरे जीवन की परछाइयों को …
पानी बढ़ता गया ,गंदगी साफ़ होती रही ,
कई आकार सम्मिलित हुए एक ही धारा में ,
पर मिटा ना सकी यह वर्षा ,
वर्षों से बढ़ती रही दिलों की उस दरार को …
एक मोटर चल पड़ी ,
कीचड़ उछालकर
मैले जीवन को ना जाने कैसे
और मैला बनाकर ….
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जूते
चौंक जाते हैं हम ,
बच्चों के कुछ ऐसे सवालोंसे ,
जानबूझकर नासमझ बनकर
जवाब देनेसे कतराते हैं …
दोपहर की कड़कती धूप में
आधे अधूरे फटे वस्त्रों में
बच्चे रास्ते पे खेल रहे थे ,
ना भूत और भविष्य से परेशान
अपनी ही धुन में जिए जा रहे थे....
चार वर्षीय पोता मेरा बोला -
दादू -बच्चों ने जूते क्यों नहीं पहने हैं ?
झूठ बोलना तो हम अच्छा सीख गये हैं -
बिना शर्म और झिझक के ,
मैंने जवाब दिया -
बेटा -शायद उन्होंने खेलकूद के लिए ,किसी कोने में निकाल रखे हैं -
जवाब तो हमने दे दिया ,
लेकिन बहुत बैचैनी रही -
और फिर अपने आप से ठान ली ,
की जितना भी मुमकिन हो ,
बच्चों को जूते ज़रूर दिलायेंगे ,
जूते ज़रूर पहनायेंगे ….
मोहन पालेशा
( पास्ट डिस्ट्रिक्ट गव्हर्नर 3131)